..."हैप्पी वैलेंटाइन डे"

Posted: Saturday, February 14, 2009 by Vikrant in Labels:
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"रिक्शावाले अंकल,आपने आंटी को वैलेंटाइन डे विश किया?"
"क्या किया!?"
"अरे आपने आंटी को हैप्पी वैलेंटाइन डे कहा?"
"ये क्या होता है?"
"अरे आपको वैलेंटाइन डे नहीं पता!मैं बताती हूँ,जब कोई लड़का किसी लड़की से बहुत प्यार करता है तो उसको आज के दिन हैप्पी वैलेंटाइन डे कहता है"
"तो हम आप ही से कह देते हैं..."
"धत,आप तो एकदम से बुद्धू हैं,अरे ये वाला प्यार नहीं,'वो वाला प्यार' "
" 'वो वाला प्यार' मतलब क्या?"
"अरे मुझे शर्म आती है,किसी से कहना नहीं तो बताती हूँ,अरे '
वो' मम्मी-पापा वाला प्यार,अंकल आंटी वाला प्यार और सोनू भैया और उनके क्लास की प्रिया दी वाला प्यार"
छोटी सी बच्ची साँसों के सहारे 'कोई सुन न ले' वाली अदा में सब कुछ सुनाती चली गयी
"हाँ हाँ नंदू बिटिया मैं सब समझ गया,अब जल्दी से क्लास जाओ,मैडम आती ही होंगी"
नंदू यानि कि राजनंदिनी रिक्शे से उतर कर झटपट क्लास की ओर भाग चली
"अरे संभल के"
"मुझे कुछ नहीं होगा,I'm a complan girl,और हाँ किसी से आज वाली बात बताना मत "
और फिर नंदू एक झटके में क्लास के अंदर चली गयी.

थका हारा अब्दुल रात को घर लौटा तो फिर से वही पुरानी नुकीली चिरचिराई सी आवाज कानों पे नगाड़े बजाने लगी
"आ गए?और थोड़ा Late से आते,देह में पाव भर का मांस तो बचा नहीं है,काहे नहीं जवान छोकरे को रिक्शा चलाने भेज देते हो,पढ़ लिख के कलक्टर तो नहिये न बनेगा,अब हमारा तो इस घर में सुनने वाला कोई है नहीं,कौन पाप किये थे जो ई घर में ..."
"ए बुढ़िया,ज़रा पानी लेके आओ,पूरे दिन बरबर करते रहती है" अब्दुल कहते हुए झोली के अन्दर कुछ टटोलने लगा
"हाँ आते हैं,कहते हैं कि दो दो बेटी निकाह के लिए...लो पियो खूब पानी,खाना तो दो टाइम ठीक से खाओगे नहीं..."
"ग्लास दोगी???"
"हाँ तो लो न,हम कहाँ अपने लिए..."
"देखो तुम्हारे लिए कुछ लाये हैं" कहते हुए अब्दुल ने फूलों का गजरा और बाल में लगाने वाला तेल फरीदा(बुढ़िया) के सामने रख दिया
"और एक ठो बात कहें?...हैप्पी वैलेंटाइन डे"
"धत बुड्ढा,ई बुढापा में जवानी चढ़ गया है क्या फिर से" अब्दुल को इस बार फरीदा कि आवाज में अजब सी मिठास घुली मालूम हुई
"तू पहले से जानती है क्या वैलेंटाइन डे के बारे में???"
"हाँ जहाँ काम करते हैं न,वहां साब मेमसाब को यही कह-कह के चुम्मा-चाटी कर रहा था"
कहते हुए जब तक फरीदा पलटी,अब्दुल बिलकुल पास आ चुका था और दबे होठों से गुनगुना रहा था "ऐ मेरी जौहरो-जबीं,तुझे मालूम नहीं,तू अभी तक है हसीं और मैं जवाँ"
"हट बुड्ढे,तनिक शर्म भी नहीं आती"

...Bean-bag की आगोश में ...

Posted: Friday, February 13, 2009 by Vikrant in Labels:
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ज़ो स्वाद तुम्हारे हाथ की
सूखी रोटी और चटनी में था,
वह लाख तसल्लियों के बाद भी
'चीज-बर्स्ट पिज्जा' में नहीं आता।

तेरी फ़टी-पुरानी साड़ी के आँचल में
जो सुकून मिला करता था,
वह आराम आज 'बीन-बैग' में
समा जाने से भी नहीं आता।

आम की टहनियों में बँधे
'टायर' के झूले पे जो चेहरा खिला था,
एच.एन.की ट्वाय-कारों की टक्करों में
उसका एक अंश भी न पा सका।

गंगा को स्पर्श कर छत से गुजरती
ठंडी बयार ने जो झपिकयाँ दी
कमरे के ए.सी. की 'कंडीशंड'
हवाएं वो सुकून न दे पायीं।


एक प्रश्न करता हूँ स्वयं से कि
क्यूँ कल का स्वच्छन्द मन आज
बँध चुका है सांसारिक पाश में।

एक प्रश्न करता हूँ स्वयं से कि
क्यूँ शामिल हैं हमारे कदम भी
आधुनिकता की अंधी दौड़ में।

और ऐसे ही कई सवालों से जूझता
एक और प्रश्न करता हूँ स्वयं से कि
क्यूँ सिर्फ सवाल-दर-सवाल किये जाता हूँ।

और फिर जवाबों की तलाश में
बीन-बैग पे करवट-दर-करवट
पूरी रात आँखों मे काट जाता हूँ।

...परिणाम

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यह कोई सत्ता का संघर्ष नहीं
इसमें चीखें तो हैं किन्तु चिर शांत
रक्त तो बहते हैं,पर मृत्यु नहीं होती I

टक्कर तलवारों
की नहीं
विचारों की होती है I
और,घायल हर क्षण
एक ही ह्रदय होता है I

इक लड़ाई
जो वर्षों से चली आ रही है
मुझमें और मुझ ही में I

परिणाम शायद न है
और न मैं सोच पाता हूँ I
वैसे भी यह मेरा काम नहीं I
न सोचा था इसे
कुरुक्षेत्र के मैदान ने
और न ही परातंत्रता की वेदना झेलती
संपूर्ण भारत-भूमि ने I

किन्तु एक आशा
जो कुरुक्षेत्र की भी थी
और भारत-भूमि को भी,
मैं भी करता हूँ
कि
'परिणाम हो,परिणाम हो'I

...कौन हो तुम कामिनी !

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सुमन ने मुस्कान सीखी
कोकिला ने तान सीखी
हंस ने सीखी तुम्ही से
मंद गति गजगामिनी
कौन हो तुम कामिनी !

सादगी दर्पण की सी है
स्वप्न स्वर्गों के कपोत
केश नीरद की धरोहर
नयन चंचल दामिनी
कौन हो तुम कामिनी !

...मिलोगे मुझसे ?

Posted: Sunday, February 8, 2009 by Vikrant in Labels:
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मिलोगे मुझसे?
शायद नहीं जानते मुझे
इसलिए मिलना चाह्ते हो
यहाँ एक राही पड़ा है
थका हारा अकेला मजबूर
राह तकता मौत की
क्यूंकि अब चल न पायेगा
एक भी कदम.
और दूसरी कोई मंजिल नहीं
जो खुद चलकर आती हो
मुसाफिर तक.
हमारी दुनिया मे
मुसाफिर नहीं
रास्ते चला करते है
और शायद मंजिल भी.
वो देखो चली आ रही है.
अब कहो,मिलोगे मुझसे??

'ना' नहीं कह पाओगे
इन्सान हो न.
देखा है मैने भी
तुम्हारी तन्हाईयो को
झूठी शान
भूखे मान को
इंसानियत को और
इंसानियत की धज्जियों को.
एक धुन्धला चश्मा जो सबकी
आँखों पे लगा है.
हटा न पाओगे
क्यूंकि हिम्मत नहीं है
सच्चाई दिख जायेगी,है न!
तो
फिर मिलोगे कैसे मुझसे???

नहीं दिखता मै कुहासे मे
हटाओ ये
धुआँ
या फिर उसे
जिससे उठ रहा ये धुआँ
जानता हूँ मुश्किल है
नामुमिकन तो
नहीं
एक कदम तो बढ़ाओ
तो पाओगे कि शायद
साथ ही तो हूँ मै तुम्हारे.

अब कहो,मिलोगे मुझसे?