ज़ो स्वाद तुम्हारे हाथ की
सूखी रोटी और चटनी में था,
वह लाख तसल्लियों के बाद भी
'चीज-बर्स्ट पिज्जा' में नहीं आता।
तेरी फ़टी-पुरानी साड़ी के आँचल में
जो सुकून मिला करता था,
वह आराम आज 'बीन-बैग' में
समा जाने से भी नहीं आता।
आम की टहनियों में बँधे
'टायर' के झूले पे जो चेहरा खिला था,
एच.एन.की ट्वाय-कारों की टक्करों में
उसका एक अंश भी न पा सका।
गंगा को स्पर्श कर छत से गुजरती
ठंडी बयार ने जो झपिकयाँ दी
कमरे के ए.सी. की 'कंडीशंड'
हवाएं वो सुकून न दे पायीं।
एक प्रश्न करता हूँ स्वयं से कि
क्यूँ कल का स्वच्छन्द मन आज
बँध चुका है सांसारिक पाश में।
एक प्रश्न करता हूँ स्वयं से कि
क्यूँ शामिल हैं हमारे कदम भी
आधुनिकता की अंधी दौड़ में।
और ऐसे ही कई सवालों से जूझता
एक और प्रश्न करता हूँ स्वयं से कि
क्यूँ सिर्फ सवाल-दर-सवाल किये जाता हूँ।
और फिर जवाबों की तलाश में
बीन-बैग पे करवट-दर-करवट
पूरी रात आँखों मे काट जाता हूँ।
mast likhta hai yaar tu! achi kavita hai!